18/08/17

ऐन्सेफलाइटिस-मस्तिष्क ज्वर




ऐन्सेफलाइटिस-मस्तिष्क ज्वर



बच्चों में ऐन्सेफलाइटिस इतना प्राणघातक क्यूँ है ?

गोरखपुर में इतने बच्चों की मृत्यु का क्या कारण है ? निर्दयता, लापरवाही अथवा रूग्णता के आरोपों का फैसला होने के पूर्व ही यह तो निर्विवाद है कि वे शिशु तथा बच्चे आज भी जीवित होते अगर उन्हें ऐन्सेफलाइटिस बीमारी न होती। ऐन्सेफलाइटिस मस्तिष्क में होने वाली सूजन है जो एकाएक तीव्र ज्वर, सिर दर्द, गरदन में अकड़न, भ्राँति, निश्चेतावस्था, उद्वेग, ऐंठन के साथ पक्षाघात तथा अंततः मृत्यु का कारण बनती है। अगर लक्षणों का उपचार प्रथम निदान के कुछ घंटों के अन्दर, त्वरित नहीं किया गया, संक्रमण से ग्रस्त रोगियों में से 30 % की मृत्यु हो जाती है।

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जो रोगी बच जाते हैं, वे भी किसी न किसी तरह की शारीरिक अपंगता से ग्रस्त हुए बगैर नहीं रह पाते। इनमें लगभग 30 % सदा बनी रहने वाली बौद्धिक, व्यवहारिक अथवा तंत्रिका संबंधी समस्या से ताउम्र ग्रस्त रहते हैं, जिनमें आंशिक पक्षाघात, आवर्ती उद्वेग तथा वाक् क्षमता के ह्वास शामिल है। मस्तिष्क ज्वर-ऐन्सेफलाइटिस, बीमारी के लक्षण गर्म व शुष्क ऋतु में, जापानी ऐन्सेफलाइटिस (JE) तथा तीव्र मस्तिष्क ज्वर व लक्षण-एक्यूट ऐन्सेफलाइटिस सिण्ड्रोम (AES) के कारण सामने आते हैं, मानसून में दोनों के प्रकरण कम हो जाते हैं।

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पन्द्रह वर्ष से कम उम्र के बच्चों पर एईएस का सबसे बुरा प्रभाव पड़ता है, आमतौर पर कुपोषित बच्चों पर जो पाँच वर्ष से कम के होते हैं। गत सप्ताह में 63 बच्चे मस्तिष्क ज्वर ऐन्सेफलाइटिस से गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में काल कवलित हुए। उत्तर प्रदेश में जेई तथा एईएस ऐन्सेफलाइटिस के वार्षिक प्रकोप का इस जिले में अधिकेन्द्र है, तथा सैकड़ों की तादाद में बच्चों का उपचार केंन्द्र है जो पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार व नेपाल के संक्रमण पीड़ित होते हैं। बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ऐन्सेफलाइटिस हेतु इनका उपचार होता है जो कि इस भूभाग में सबसे बड़ा तृतीयक देखभाल केंन्द्र है ।



जेई तथा एईएस ऐन्सेफलाइटिस के बारे में जानकारी प्रस्तुत है।

जापानी जेई, ऐन्सेफलाइटिस

जापानी जेई एक पीतवायरस है जो डेंगू, पीला बुखार व नील नदी के विषाणु के सदृश्य है। यह मनुष्यों में शूकरों तथा जलपक्षियों के कारण, क्यूलेक्स परिवार के मच्छरों के काटने से फैलता है। मनुष्य के रक्त से आहारपूर्ति करने वाले मच्छर इस विषाणु को मनुष्य से ग्रहण नहीं कर पाते, इस कारण से यह रोग देहात तथा कस्बों तक सीमित होता है, जहां मनुष्य शूकरों तथा जल पक्षियों के समीप रहते हैं।



वैश्विक परिदृश्य में जेई लगभग 68000 व्यक्तियों को बीमार करता है और 13,600 से 24,000 मनुष्यों के प्राण लेता है। अधिकतर लोगों में हल्का बुखार तथा सिरदर्द होता है जो स्वतः कुछ दिनों में ठीक हो जाता है। किन्तु प्रत्येक 250 में से एक व्यक्ति में चिंता जनक नैदानिक रोग उत्पन्न होते हैं। प्रत्येक तीन संक्रमित रोगियों में से एक की मृत्यु इस रोग में एकाएक उत्पन्न तीव्र ज्वर, मस्तिष्क पीड़ा, गरदन की अकड़न, भ्रांति जो निश्चेतावस्था में बदल जाती है, उद्वेग तथा ऐंठन के साथ पक्षाघात से हो जाती है।

जेई 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को प्राथमिकता से संक्रमित करता है। स्थानिक रूप से अधिकतर वयस्कों में प्राकृतिक प्रतिरोधकता विकसित हो जाती है किन्तु उस स्थान पर सॆक्षिप्त प्रवास पर आने वाले हर वय के यात्रियों में संक्रमण का अंदेशा रहता है। भारत में वर्ष पर्यंत संक्रमण होते हैं किंतु मानसून तथा धान की फसल के कटने से पूर्व संक्रमण का अंदेशा चरम पर होता है। नैदानिक परीक्षण मस्तिष्कमेरू-रीढ़ के पानी-सेरिब्रल फ्लूइड से पूर्ण किया जाता है।



सन् 2006 से जेई के लिए वार्षिक टीकाकरण लगातार असम, आंध्र प्रदेश, बिहार, हरियाणा, गोवा, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिमि बंगाल में किया जा रहा है।

जेई का कोई इलाज नहीं है। उपचार ही सहायक है तथा घातक, दारुण नैदानिक रोग लक्षणों पर केन्द्रित होता है तथा रोगी को संबल तथा शक्ति प्रदान करने का लक्षय, जिससे उसकी देह संक्रमण का सामना कर उससे लड़ कर जीतने में सफल हो सके।

एक्यूट ऐन्सेफलाइटिस सिण्ड्रोम (AES)-मस्तिष्क ज्वर व अन्य लक्षण

भारत में जेई तथा मस्तिष्क ज्वर व लक्षण-एक्यूट ऐन्सेफलाइटिस सिण्ड्रोम (AES) के खिलाफ टीकाकरम की शुरुआत होने से अब तक इन संक्रमणों के मामले तथा इनसे हुई मौतों की संख्या में पाँच गुणा तक कमी देखी गई है। 2016 में एईएस AES से संक्रमित 11,651 रोगी थे तथा इनमें 1,301 की मृत्यु हुई थी, जबकि 2017 में टीकाकरण के बाद यह संख्या 1,676 के संक्रमण और इनमें से 283 की मृत्यु पर आ गई। जेई प्रकरण 838, व 86 की मृत्यु हुई।
एईएस AES संक्रमण कई कारणों के फलस्वरूप देखने में आया है, जिनमें शामिल है कच्चे लीचीफल में स्थित विषाक्त पदार्थ, विषाणु-वायरस, रोगाणु-बेक्टीरिया, फफूँदी, परजीवी तथा रासायनिक विष। एईएस-AES के संकेत मस्तिष्क में सूजन के साथ बढ़ता हुआ तीव्र ज्वर (तीन से चार घंटों के अंदर 1040 से. से अधिक), अत्यधिक तीव्र सिरदर्द, मूर्छा, भ्रांति, निश्चेतावस्था, कंपन-झटके, आक्षेप, स्नायु दौर्बल्य तथा पक्षाघात के बावजूद भी स्थिति टीकाकरण से बचाव करने की नहीं।



भारत में एईएस AES संक्रमण का प्रकोप, उत्तरी तथा पूर्वी क्षेत्र में, बच्चों के खाली पेट अधपके लीची फल खाने से जोड़ा गया है। अधपकी लीची में विषाक्त हायपोग्लायसीन ए तथा मिथाईलीन सायक्लोप्रोपेल ग्सायसीन (एमसीपीजी) होता है, जो अधिक मात्रा में खाने पर वमन का कारण बनता है।

हायपोग्लायसीन ए एक प्राकृतिक अमीनो अम्ल है जो बिना पकी हुई लीची में होता है जो गंभीर वमन का कारण बनता है, जबकि (एमसीपीजी) एक विषाक्त यौगिक है जो लीची के बीजों में होता है और एकाएक रक्त शर्करा में कमी कर देता है, वमन व परिवर्तित मनस्थिति जो निष्क्रियता, निश्चेतना, मूर्छा का कारक बनकर मृत्यु में परिणत होते हैं।

यह विषाक्त पदार्थ एकाएक तीव्र ज्वर एवं उद्वेग को जन्म देते हैं जो इतने गंभीर होते हैं कि किशोरावस्था के कुपोषित बच्चों को अस्पताल में भर्ती करने की स्थिति बन जाती है।

इन्हें ग्लूकोज़ (शर्करा) देना इनके लगातार तेजी से गिरते शर्करा स्तर को सामान्य स्तर पर लाने में सहायक होता है तथा साथ ही रोग से लड़ने में शक्ति मिलती है। यह अनुशंसा है एक अध्ययन द्वारा प्राप्त आँकड़ों की जो लॉन्सेट ग्लोबल हेल्थ द्वारा किया गया है।

हिन्दुस्तान टाइम्स

संचिता शर्मा

पुनश्च-
मई जून 2019 में लगातार 150 बाल रोगियों की मृत्यु के पश्चात आश्चर्यजनक समाचार आया कि संभावित मृत्युदर में उल्लेखनीय कमी देखी गई है, और यह चमत्कार मात्र कुछ युवाओं का प्रयास था । किंतु सूक्ष्मतः यह संसार में व्यापक रूप से होने वाले जनधन के विनाश का प्रतिकार है। आवश्यक साधन के अभाव मैं रोगी व सेवक प्राकृतिक मौलिकता की राह दिखा रहे हैं। शासन द्वारा प्रकाशित रोग मार्गदर्शिका से प्रेरित इस स्वस्फूर्त जनजागृति के फलस्वरूप अनेक बच्चों को असमय मृत्यु से बचाया गया।


पिस्सु से फैलने वाला मस्तिष्क रोग यूनाइटेड किंगडम-ब्रिटेन पहुँचा

जन स्वास्थ्य विभाग, इंग्लैंड के अनुसार पिस्सुजनित एंसिफलाइटिस विषाणु , इंग्लैंड के दो भागों में पिस्सुओं में सुनिश्चित किया है। 
मृगों की बढ़ती संख्या से ब्रिटेन में पिस्सु बढ़ रहे हैं, किंतु आवश्यक नहीं कि इनके काटने से संक्रमित हों।
डॉ निक फिन शोध की आवश्यकता बताते हैं, अधिकतर संक्रमित मामूली फ्लू के लक्षण तक सीमित किन्तु यह संक्रमित व्याधि मस्तिष्क व केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र पर आक्रामक हो प्राणघातक सिद्ध होती है। पिस्सू अन्य संक्रामक विषाणु भी  वहन करने योग्य हैं जो लाइम डिजीस जैसी घातक व्याधी के कारक हैं। डॉ फिन कहते हैं कि पिस्सु, खटमल आदि की प्रजाती से बचकर रहें विशेषकर लम्बी घांस व उद्यानों में।

एक संक्रामक मस्तिष्क रोग जो जनसामान्य को पिस्सुओं द्वारा संक्रमित करने में सक्षम है  ब्रिटेन के लंदन शहर में पिस्सुओं में पाया गया है।
पिस्सू से जन्मा यह विषाणु -एन्सिफलाइटिस  पहले ही से मुख्य यूरोप, स्केन्डिनेविया तथा एशिया में भ्रमण कर रहा है।
स्वास्थ्य विभाग, इंग्लैंड के अनुसार मस्तिष्क को ऐन्सिफलाइटिस विषाणु से संक्रमित करने में सक्षम  पिस्सुओं की बीमारी मनुष्यों में पिस्सुओं के काटने से फैलने में सक्षम है और साक्ष्यानुसार इसकी पुष्टी कर ली गई है।
कैसे यह संक्रमित पिस्सु ब्रिटेन तक आए इसके कारण  में प्रवासी पक्षी हो सकते हैं जिनपर सवार हो कर यह आए हैं।

वर्षारंभ में एक यूरोपियन यात्री, जो अब स्वस्थ है पिस्सु के दंश से न्यू फॉरेस्ट क्षेत्र में संक्रमित हुआ था। 
आशंका से  बचने के लिए त्वचा ढ़क कर रखें, कीट भगाने के साधन अपनाए, दंश के बाद चिमटी से हटाऐं, साबुन या एण्टीसेप्टिक वापरें।
डाॅक्टर की सहायता लें, अँदेशा होने पर फ्लू अथवा गोल लाल धब्बा त्वचा पर उभरे तो। यह छलाँगने में, उड़ने में असमर्थ होते हैं पर मानव या पशु के निकट गमन की प्रतीक्षा करते हैं और सवार हो जाते हैं, सवारी के रक्ताहार हेतु, जिसपर यह जीवित रहते हैं।


By Michelle Roberts

स्वास्थ्य संवाददाता, बीबीसी न्यूज आनलाईन
29 अक्टूबर 2019
https://www.bbc.com/news/health-50206382       



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