08/11/19

प्रसवोत्तर अवसाद-उद्वेग-पोस्टपॉर्टम डिप्रेशन व ऐंग्जायटी

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प्रसवोत्तर अवसाद-उद्वेग-पोस्टपॉर्टम डिप्रेशन व ऐंग्जायटी

सतही तौर पर प्रसवोत्तर अवसाद या उद्वेग-पीपीडी निराशा-डिप्रेशन के
अन्य प्रकारों/रूपों की तरह ही दिखाई देते हैं। 
किंतु प्रसवोत्तर अवसाद से पीड़ित जूझती स्त्री बहुधा अपने परिवार 
व शुभचिंतकों से पलायन कर जाती है, अपनी नैसर्गिक क्षुधा गँवा देती है
तथा फलत: अधिकतर समय दुखित व चिड़चिड़ी रहती है। 
दरअसल अधिकाँश स्वजन तथा चिकित्सक
अवप्राक्कलन/कम अंदाजा लगा पाते हैं-नवमाता की अनूठी मानसिक अवस्था का
तथा उसकी भावनात्मक स्थिती का जो गर्भावस्था के चलते तथा शिशुजन्म के तुरंत बाद जिससे वह दो-चार होती है। तंत्रिका विज्ञान की तत्कालीन प्रवृतियाँ एक समीक्षा जो प्रकाशित हुई 24 जनवरी को,
मनोविज्ञानियों ने प्रसवोत्तर अवसाद व उद्वेग विकारों पर की थी।
मातृत्व की कोमल नैसर्गिक व जटिल प्रक्रिया स्त्री को बहुआयामों मे असरकरक है तथा परिवर्तनकारी है। दुर्भाग्य से अनजाने ही हम इस गूढ़ता को दरकिनार कर देते हैं।

सहस्त्राब्दी पूर्व यह गुरूत्तर विषय भारतीय दर्शन में समझा गया तथा अन्वेशित हुआ, तदनंतर इसके सिद्धांत प्रतिपादित किए गए तथा जनसामान्य को गाथाओं की सहायता से बताए गए 
उदाहरण के लिए अर्जुन पुत्र अभिमन्यु की कथा से गर्भावस्था  
का महत्व सिखाया गया ऐसे ही कई उपाख्यान पुराणों में भी प्राप्य है 
जिनमें सूुक्ष्मता से मातृत्व पर प्रकाश डाला गया है व इसे सृष्टि निर्माण का 
सर्वाधिक महत्वपूर्ण नैसर्गिक अँग निर्धारित कर माता के प्रति अनेकानेक नियम प्रतिपादित किए गए हैं।
संभावित माता के मानसिक स्वास्थ्य व प्रसन्नता के साथ ही निर्मल विचारों तथा आचरण पर भी बल दिया गया जिससे भावी शिशु उच्च गुणों तथा आचरण युक्त जन्म ले। 
अभिमन्यु सदृश्य कई उपाख्यानों में कंठस्त वेद और पुराणों सहित शिशुजन्म का वर्णन  मिलता है।
जबकी वर्तमान में हम माता की तंत्रिका व जैवविज्ञानी मानसिक बौद्धिक स्थिती व
मानसिक अवसाद, उद्वेग व विक्षोभ को बिसरा बैठे हैं।


गर्भाशय की रूधिरवर्णिका-हीमोग्लोबिन में प्राणवायु के प्रति विशेष आत्मीयता होती है जो माता के रक्त की प्राणवायु के प्रसरण को गर्भ स्थित भ्रूण जीव में व्यापकता से प्रसारित करती है। माता का रक्तवाही तंत्र गर्भ से सीधे जुड़ा हुआ नहीं होता। अतः गर्भनाल गर्भ हेतु श्वसन प्रणाली की तरह होती है तथा पोषण प्लाविका व निस्तार के लिए निस्पंदन स्थल। जल, शर्करा, अमीनो अम्ल, विटामिन तथा अकार्बनिक लवण मुक्त रूप से प्राणवायु के साथ गर्भनाल  में  प्रसारित होते हैं। गर्भनाल स्थित धमनियाँ गर्भरज्जु तक रूधिर पहुँचाती हैं और तब यह रक्त आंवल, अपरा स्थित खँखरा-स्पँजी पदार्थ-मटीरियल को तर करता है-परमिएट्स। प्राणवायु तब बीजांडासन-प्लेसेण्टा से विस्तारित-डिफ्यूज़ होकर जरायु अँकुर-कोरियोनिक विलस, उदर में स्थित अँगुली सदृश्य सूक्ष्म अँकुर जो जरायु-प्लेसेण्टा की दीवारों पर भी होते हैं, जहाँ से यह, प्राणवायु गर्भाशय धमनियों तक पहुँचायी जाती है।



बीजाँडासन-प्लेसेण्टा से रूधिर भ्रूण-फीटस तक गर्भ धमनियों-अँबायलिकल वेन द्वारा पहुँचता है।
इसमें से एक तिहाई रक्त भ्रूण शिरावाहिनी-फीटल डक्टस वेनोसस तक सीधे पहुँचता है,
तथा शेष यकृत में इसके निचले  हिस्से से होकर।
गर्भनाल धमनी-अँबायलिकल वेन की वह शाखा जो यकृत के दाँए भाग-राइट लोब की पूर्ति करती है, प्रथमतः यकृत धमनी-पोर्टल वेन से जुड़ती है।
तत्पश्चात ही रक्त हृदय के दाँए प्रकोष्ठ-राइट एट्रियम में जाता है।
भ्रूण-फीटस में दाँए तथा बाँए  परिकोष्ठ-एट्रियम के मध्य एक प्रस्फुटन या द्वार होता है जो फोरामेन ओवेल कहलाता है, अधिकाँश रक्त इससे होकर दाँए एट्रियम से बाँए एट्रियम में प्रवेश करता है,
फुफ्फुसीय रक्त परिसंचरण-पल्मोनरी सर्क्यूलेशन को बायपास करके-बाह्य पथ से।
इस रक्त संचार का अविराम विस्तार हृदय के बाँए प्रकोष्ठ-लेफ्ट वेंट्रिकल में होता है,
जहाँ से वृहद्धमनी से देह में स्पंदित-पंप हो जाता है।
रक्त की कुछ मात्रा वृहद्धमनी से, आंतरिक श्रोणिफलकीय-इंटरनल इलियाक
धमनियों से गर्भनाल धमनियों में जाता है, तथा बीजाँडासन में पुनः प्रविष्ठ हो जाता है,
जहां बीजांडासन से कार्बन डायआक्साईड व अन्य अपशिष्ट लेकर परिसंचरण पथ में प्रविष्ट कर दिए जाते हैं।

रक्त की कुुछ मात्रा जो दाँए प्रकोष्ठ में प्रविष्ठ हुई थी, सीधे तौर पर बाँए प्रकोष्ठ में, फोरामेन ओवेल द्वारा, हस्तांतरित नहीं होती बल्कि दाँयी हृदय गुहा में प्रविष्ट होकर वहां से फुफ्फुसीय धमनी-पल्मोनरी आर्टरी व वृहद्धमनी में-डक्टस आर्टिरियोसस, में स्पंदित-पंप हो जाती है, जो इस रक्त के अधिकतम अँश को फुफ्फुस से विलक्ष्य कर देती है। इस समय श्वांसोच्छवास हेतु भ्रूण द्वारा रक्त अनुपयोग में हैं, क्योंकि भ्रूण इस समय अमीनियोटिक तरल में डूबा हुआ होता है।
साभार।

ना सिर्फ भौतिक शरीर से माता व शिशु एक होते है वरन मानसिक, वैचारिक तथा स्वभाव  व परिस्थितिक अवसाद, उद्वेग भी दोनों में साझा होकर, परस्पर प्रभावित करते हैं।

मानव मस्तिष्क पर किए गए अध्ययन बताते हैं कि प्रसवोपरांत अवसाद व उद्वेग, समरूप मानसिक विकारों से अलग होते हैं
यह दृष्टांत प्रतिनिधित्व करता है समरूपता व असमानता/भिन्नता का, परत-दर-परत-एमआरआई छबि जो ठोस वस्तु को परतों मे बाँट कर तदुपरांत एकसार की जाती है,
क्रियात्मक किए गए मस्तिष्क के विभिन्न भाग, जो प्रसवोत्तर अवसाद या उद्वेग व व्यग्रता व सामान्य उद्वेग विकार का तुलनात्मक अध्ययन है।
प्रसवोत्तर अवसाद माता के साथ नवजात शिशु को भी प्रभावित करता है।
अवसाद में नवमातृत्व को प्राप्त माता शिशु पर आकस्मिक कड़क या कर्तन के व्यवहार से
माँ व शिशु के बंधन को हानी पहुंचा सकती है।
वह शिशु से कुपित हो कर चिड़चिड़ा सकती है, उसे हस्तक्षेप मान सकती है।
पलायन तथा दूरस्थता की भावना उभर सकती है।
यह प्रसवोत्तर उत्कंठा/उद्वेग-एंग्जाइटी में भी देखा गया है।
पॉलुस्की। यह शुरूआती परस्पर क्रियाऐं शिशु के स्वास्थ्य पर दीर्घावधी प्रभाव को जन्म देती है।
अवसादग्रस्त माता के शिशु, स्वस्थ माता के शिशु से कहीं अधिक मात्रा में चिकित्सीय सहायता की मांग करते हैं,
उच्च मात्रा में रोग-व्याधी के भार तले चिकित्सा तथा चिकित्सक की उन्हें अधिक आवश्यकता होती है।
सेवाओं का अनुमानित मूल्य लगभग सात हजार डालर या पाँच लाख ₹ होता है।
किंतु प्रत्येक दस में से एक माता  को प्रसवोत्तर अवसाद व उद्वेग को
सामान्य अवसाद व उद्वेग के रूप में स्वीकार्य कर मामूली ध्यान दिया जाता है।
नव मातृत्व के अवसाद का अनुभव तब और जटिल/उलझाव भरा हो जाता है
इस सत्य के साथ कि स्त्री से अपेक्षा की जाती है कि वह प्रसन्नतापूर्क उत्साह और उमंग से इसे,
नव मातृत्व को, अपनाए।
अधिकतर स्त्रियाँ प्रसवोत्तर अवसाद तथा मानसिक विकार की भावनाओं को साझा करें या खुलकर बताऐं।

पॉलुस्की, जो स्वयं दो बच्चों की माता हैं नव मातृत्व के विषय में कहती हैं- यह जीवन को बदलने वाला अनुभव है, विलक्षण है, अद्भुत है, निराश व हताश करने वाला है, रोमांचकारी तथा इनके मध्य की हर स्थिती का स्व अनुभव है।

यह संपूर्ण समय प्रसन्नता प्रदान नहीं करता, हमें इसे समझना होता है,
इसके विषय में चर्चा करनी होती है कि क्यों यह कई स्त्रियों में मानसिक विकार को जन्म देता है।
अगर हम माता के स्वास्थ्य को बेहतर कर सकते हैं
तो हम शिशु तथा सम्पूर्ण परिवार के स्वास्थ्य तथा स्थिती में गुणवत्ता ला सकते हैं।
अधिक जानकारी: तंत्रिकाविज्ञान-न्यूरोसाइंस की प्रवृत्तियाँ।

पॉलुस्की, लोन्स्टीन व फ्लेमिंग- प्रसवोत्तर उद्वेग व अवसाद का जैवतंत्रिका-न्यूरोबायलोजी विज्ञान

http://www.cell.com/trends/neurosciences/fulltext/S0166-2236(16)30177-1 DOI:10.1016/j.tins.2016.11.009

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